
बिहार के सियासत के अगर एक शब्द में बखान होखे, तs उ शब्द ह “संघर्ष”। ई धरती जात-पात, क्षेत्रीय अस्मिता, वंशवाद आ चाणक्यवादी चाल के संग अमीरी-गरीबी, गांव-शहर के टकराव से भरल राजनीति देख चुकल बा। लेकिन ए सब झंझावत के बीच एगो सवाल बार-बार उठेला –
“महिलन के जगह कहां बा बिहार के सियासत में?”
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राबड़ी देवी: ‘गृहिणी’ से ‘मुख्यमंत्री’ तक के सफर
जब 1997 में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनली, तs पूरा देश अचंभित हो गइल। ना भाषण, ना अनुभव, ना मंच – सीधा कुर्सी। लेकिन उ “कठपुतली” कहल जाए वाली महिला 8 साल तक शासन कइली।
उ हर घर के औरत खातिर मिसाल बनली, जवन सिखवलस कि मौका मिले तs नारी भी राज कर सकेली।
फिर राबड़ी के बाद का?
राबड़ी देवी के बाद ना कोई महिला नेता वैसा जनाधार बना सकली, ना पार्टीओ उन्हें ऊंचाई तक पहुंचावल।
आज नाम तs बा –
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मीसा भारती (राज्यसभा सांसद, लेकिन जमीन से दूरी)
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रेणु देवी (पूर्व डिप्टी CM, लेकिन पार्टी के फ्रंट सीट पर नहीं)
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अनामिका सिंह, प्रगति मेहता जैसन युवा चेहरे (जोश तो बा, लेकिन मंच नहीं)
समस्या कहां बा?
बिहार के सियासत अबहियो मर्दवादी ढांचा में बंधल बा।
यहां:
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जातीय समीकरण के ताकत ज़रूरी
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संगठन में पकड़ और ग्रासरूट सपोर्ट अनिवार्य
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औरत अगर आगे बढ़ी तs ऊ पर या तs वंशवाद के ठप्पा लगेला, ना तs कोटा कार्ड खेलल जाला
2025: बदलाव के साल हो सकेला?
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महिला आरक्षण बिल से अब विधानसभा में 33% सीट महिलन खातिर आरक्षित हो सकेला
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2020 में महिला वोटर के संख्या पुरुष से अधिक रहल
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ई साबित करेला कि औरतन ना खाली वोट देले, ऊ अब राजनीति के दिशा भी तय करेली
का अगिला मुख्यमंत्री महिला हो सकेली?
हो सकेला। लेकिन ऊ राबड़ी देवी के तरह “प्रॉक्सी” ना, बलुक “मूल नेता” होखे के पड़ी। उ ना खाली परिवार से आवे, बल्कि आंदोलन, पंचायत, छात्र राजनीति या जन सरोकार से निकले।
राबड़ी देवी बिहार के राजनीति में पहिला अध्याय लिखली। अब दूसरा अध्याय के बारी बा। 2025 शायद ऊ मौका हो, जब कोई नारी बिहार के “सत्ता के सिंहासन” पर फिर से विराजमान होखे – लेकिन ई बार अपने बल पर, अपने सोच पर।
“अब बिहार रानी के इंतजार में बा!”
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